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Teacher & School...!

Updated: Jun 2, 2022

“शिक्षक और विद्यालय”



मैं पूरी विनम्रता और क्षमाप्रार्थना के साथ यह बताते हुए की मेरा उद्देश्य किसी का अपमान करना या किसी को नीचा दिखाने का नहीं बल्कि सिर्फ समस्या की पहचान और उसके समाधान की ओर बढ़ने का है, यह कहना चाहता हूँ कि;

“शिक्षा में गुणवत्ता के नाम पर पचास तरह के उलझाने वाले कार्यक्रमों के स्थान पर विद्यालयों में मानवीय संसाधनों की पर्याप्त उपलब्धता के साथ कक्षा-कक्ष में शिक्षक को आवश्यकता आधारित प्रयोग/नवाचार/शिक्षण विधि के उपयोग के लिए स्वतंत्रता प्रदान करने की आवश्यकता है न कि नवाचार थोपने की।

प्रयोग सफलता के प्रथम सोपान होते हैं किंतु प्रयोग के नाम पर ढकोसलों से हताशा और नकारात्मक परिणाम के अतिरिक्त और कुछ हासिल होता है तो वह है शासकीय धन और श्रम का अपव्यय।“



यदि एक शिक्षक स्वयं के धन से अपने विद्यालय में भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति कर पाता है तो निश्चित रूप से वह साधुवाद का पात्र है। इसका अर्थ यह भी है वह शिक्षक इस कार्य के लिएआर्थिक रूप से समर्थ है। किंतु क्या यह सभी शिक्षकों के लिए समान स्थिति होना अनिवार्य है?

एक प्राथमिक विद्यालय जहॉं तीन से चार शिक्षक पदस्थ हैं यदि उस विद्यालय में विशेष अभियान चलाने की आवश्यकता पड़ सकती है तब क्या यह विचार नहीं किया जाना चाहिए कि एकल शिक्षकीय विद्यालयों के लिए किस प्रकार की आवश्यकताओं की पूर्ति की आवश्यकता है?





शैक्षणिक गुणवत्ता की चर्चा होती है तब लोग यह भूल जाते हैं कि प्राथमिक शाला शिक्षा की नींव तैयार करता है। दुर्भाग्यपूर्ण ढंग से हमारी व्यवस्था यह मान बैठी है कि एक या दाे या तीन शिक्षक जो वास्तव में कागज पर ही होते हैं वे लिपिक, कैंटीन संचालक, डाक वाहक इत्यादि अनेक भूमिकाओं का निर्वहन करते हुए पॉंच कक्षा के अठारह विषयों का अध्यापन कार्य नियमित रूप से करा सकता है।


यह कैसे सम्भव है कि किसी विभाग के 85 से 90 प्रतिशत कर्मचारियों की कार्यकुशलता पर प्रश्न चिन्ह लगे? और यदि यह वास्तव में सम्भव है तब निश्चित रूप से विभागीय नेतृत्वकर्तओं के लिए स्व−आकलन का समय है। आज यदि इस स्तर पर शैक्षणिक गुणवत्ता में निराशाजनक प्रदर्शन दिख रहाहै तब निश्चित ही हमें अपनी कार्यशैली और क्रियान्वयन के तौर−तरीकों की समीक्षा करने की आवश्यकता है न कि जमीनी कर्मचारियों को दोषी सिद्ध कर वाहवाही लूटने की।


दुर्भाग्यजनक स्थिति है कि शिक्षक जो राष्ट्रनिर्माता की पदवी पर गर्व करते नहीं अघाते वे धरातल पर समस्याओं के सुलझाने के मुद्दे पर इस प्रकार शांत बैठ जाते हैं जैसे साँप सूँघ गया हो। शिक्षक इसलिए क्योंकि विभाग में अधिकांशतः उच्च पद पर आसीन व्यक्ति भी मूलतः शिक्षक ही होता है।


जब भी धरातल की समस्याअें की चर्चा की जाती है तब ऊपर से शाँत बैठने के समर्थन में तर्क यह कि “ऊपर कोई कुछ सुनने को तैयार नहीं है।“ यदि धारणा के साथ चुप बैठ जाना ही उचित है तब क्यों नहीं हमारे संगठन और शिक्षक अपने आर्थिक हितों के मुद्दे पर भी चुप बैठ जाते हैं? क्योंकि तथाकथित ऊपर तो लोग इस मुद्दे पर भी कुछ नहीं सुन रहे हैं। लेकिन फिर भी सफलता की आशा में संघर्ष निरन्तर जारी है। तब अपने मूल कर्तव्य के लिए संघर्ष से पीछे क्यों हटते हैं हम? क्यों नहीं निरन्तर हो रहे निरर्थक प्रयोगों के विरोध किया जाता है? ऐसी क्या कमी है शिक्षकों में की देश का सबसे बड़ा कर्मचारी समूह चलिए छोड़िए राज्य का सबसे बड़ा समूह अपने ही हित में सत्य कहने और गलत का विरोध करने की हिम्मत नहीं कर पा रहा है।


जो अमला निरन्तर विद्यालय स्तर पर समन्वय स्थापित करने के कार्य में पूरी तन्मयता के साथ जुटा है और जिन्हें अधिकार प्राप्त हैं क्यों वे अपने उच्च कार्यालय पहुँचते ही धरातल की वास्तविक स्थिति को सामने रखने में स्वयं को असमर्थ पाते हैं? पूरी संभावना है कि किसी एक या दो या गिनती के लोगों के द्वारा किए जाने वाले ऐसे प्रयासों को उच्च स्तर पर नकार दिया जाता हो किन्तु क्या यह सम्भव है कि यदि सामूहिक रूप से प्रयास हो तो उसे भी उच्च स्तर पर नकार दिया जाए?




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तनिक विचार कीजिए, क्योंकि हम चाहे जितने भी सम्पन्न हों किन्तु अंततः हमारे जीवन-यापन का वैधानिक और घोषित माध्यम यह शिक्षकीय पेशा ही है।

देशभक्ति-राष्ट्रवाद-संस्कृति की लम्बी-चौड़ी और भारी-भरकम धारणा की प्रतिपूर्ति हमारे समुदाय की ओर से स्वतः ही हो जाएगी यदि हम अपने अधिकारों के प्रति सजग रहने के साथ ही प्राथमिकता कर क्रम में अपने कार्यस्थल की कठिनाईयों पर मंथन करते हुए सत्य उजागर करें और व्यप्त समस्यों को दूर करने अपने दायित्वों के निर्वहन के लिए निरंतर प्रयासरत रहें।




देश की तरक्की और राजनीतिक विषयों में हम सोशल मीडिया से लेकर चौक-चौराहों तक सजग हैं किंतु कटु सत्य यह है कि कोई भी देश महज अपनी संस्कृति और इतिहास पर गर्व करने मात्र से महान नहीं बनता है। राष्ट्र की महानता के लिए अतीत और संस्कृति पर गर्व करते हुए वर्तमान को इतना सुदृढ बनाना पड़ता है कि आने वाली पीढ़ियाँ इस पर गर्व कर सकें।

यदि हम अपने उन दायित्वों के प्रति सजग नहीं हैं जिनके प्रति निष्ठावान होने की शपथ लेकर नौकरी प्रारम्भ किए हैं, यदि हम अपने उन अधिकारों के प्रति सजग नहीं हैं जो देश के सर्वश्रेष्ठ ग्रंथ "संविधान" के द्वारा प्रदत्त हैं और जिनके लिए दायित्व निर्वहन के साथ निरन्तर संघर्ष की आवश्यकता है तब यह निश्चित मानिए की हम "राष्ट्र निर्माता" की पदवी को बोझ की भाँति ढोए घूम रहे हैं क्योंकि जो व्यक्ति स्वयं का निर्माण नहीं कर सकता वह "राष्ट्र निर्माण क्या ख़ाक करेगा?"




यह अटल सत्य है कि समाज में अपनी स्थिति तय करने के लिए तीन ही विकल्प हैं हमारे पास:-

1. "अधिकार और कर्तव्य एक ही सिक्के के दो पहलू हैं, इस तथ्य को पूरे मन से स्वीकार करते हुए इन दोनों के साथ सामंजस्य स्थापित कर दोनों के लिए ही निरन्तर संघर्ष करें।

अथवा

2. इसी प्रकार शोषण को सहते हुए किसी प्रकार नौकरी बचाएँ और तनख्वाह कमाएँ।

अथवा

3. जी सर...यस सर...सर-सर-सर की परिपाटी को स्वीकार कर अपने स्वाभिमान को बेचते हुए तथाकथित सम्मानजनक स्थिति में नौकरी करने के नाम पर ढकोसलापंथी करते रहें और चाटुकारिता के लिए आवश्यकता पड़ने पर कमजोर साथियों/मातहतों को प्रताड़ित कर सुख और गर्व की अनुभूति करते रहें।

शेष शुभ

जय हिंद...!

🙏


#अपनी_सहूलियत_दूसरों_को_नसीहत


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